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हम बैठ कर कविता रचेंगे

@कवि : सोमवारी लाल सकलानी, निशांत हम बैठ कर कविता रचेंगे, बैठ कर रेडियो सुनेंगे। बरसात का है आज मौसम, हम गीत मीठे सुनेंगे। नाद बारिश का घना ...



@कवि : सोमवारी लाल सकलानी, निशांत


हम बैठ कर कविता रचेंगे, बैठ कर रेडियो सुनेंगे।

बरसात का है आज मौसम, हम गीत मीठे सुनेंगे।

नाद बारिश का घना है, चिड़ियाएं सब सो रहीं हैं,

स्व नीड़ मे वे परिंदों संग, कुछ चैन से बैठी हुई हैं।


घर गांव शहरों में सभी जन,बिस्तरों पर लेटे हुए हैं,

दादी मां -नानी बुआ सब, 'धरा' जी को सुन रहीं हैं।

बरसात जल्दी जब थमेगी, निशांत संग धरा हंसेगी,

परिंदों का दल दुपहरी में, धरा से चहचहाते कहेंगी।


नानी मां भी जग गई है, रसोई से कुछ सुन रही है।

सामुदायिक रेडियो हमारा, गान वर्षा  सुन रही  है।

पर परिंदों के खुल रहे हैं, चूजे भी कुछ कह रहे हैं।

अन्न कण लाओ 'धरा ' जी, हम आज ले बैठे हुए हैं।


हाल दुनिया का बुरा है ! कोई सुनने वाला नहीं है।

रूठ कर ज्यों कैकेई सम, प्राण दशरथ ले रही है।

कोरोना से भयानक, आक्रोश - आंधी चल रही है।

आतंक भय डर बेचैनी से, जिंदा सांसे थम गई हैं।


हम बैठ कर कविता रचेंगे,  बैठ कर  रेडियो  सुनेंगे।

महामारी के इस काल मे भी, मनोबल कायम रखेंगे।

धरा कवि के साथ बैठी,वह दिशा नूतन को दे रही है।

पेड़ - पल्लव प्रस्फुटित हो, सौंदर्य  जीवन दे रहा है।

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