" एक और विभूति का महाप्रयाण" कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। News Word @ हर्ष...
"एक और विभूति का महाप्रयाण"
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
News Word@ हर्षमणि बहुगुणा,
मानव जीवन कर्म करने के लिए है, वही कर्म सत्कर्म की श्रैणी में
रखा जा सकता है जिसमें नि:स्वार्थता है । ऐसे ही महामनस्वी कर्मयोगी श्री मणिराम बहुगुणा
जी थे जिन्होंने छब्बीस जून २०२१ को (अर्थात् आज) छियानब्बे वर्ष का पूरा होना
था, पर हम सबके भाग्य में उनका यह जन्म दिन देखना नहीं था।
जो मनस्वी अपने जन्मदिन को खास उत्सव बना कर मनाते थे व लोक हित में कथा वार्ता के द्वारा जन्मोत्सव का पूजन करते थे, कभी अखण्ड रामायण पाठ, कभी राम कथा, श्रीमद्भागवत, देवी भागवत, शिव महापुराण, स्कन्द पुराण, सुन्दर काण्ड, महा मृत्युंजय मंत्र का जप, हनुमान चालीसा का शत बार पाठ आदि और इस बार का ब्रह्म
वैवर्त पुराण का संकल्प जो अधूरा ही रह गया, शायद हमारे भाग्य में भी नहीं
था। ऐसी दिव्य मूर्ति उन्नीस जून महानवमी के
दिन साधारण सी बीमारी के बाद अपना भरा पूरा परिवार दो सुपुत्रों एक सुपुत्री पुत्र बधूओं , पौत्र-पौत्रियों को अपना उत्तरदायित्व सौंप कर चिर निद्रा में सो
गये।
देहरादून के एक सामान्य से क्लीनिक को ऐतिहासिकता प्रदान करते हुए अपने
आशीर्वाद से अभिसिंचित कर प्राङ्विवाक् एवं
अभियांत्रिक बेटों को समाज हित की शिक्षा देने के बाद जैसे उनसे ही विदा ले रहे हों।
सामने छोटी पुत्र बधू थी जो अपनी अश्रु धारा को रोकने में असमर्थ प्रतीत हो रही थी।
बेटी का तो रो-रोकर बुरा हाल, भतीजा श्री रामानन्द बहुगुणा उल्टे-सीधे
पैरों से दौड़े - दौड़े चले आये। घर गांव से भी सभी परिजन इस अन्तिम
विदाई के भागीदार बनने जहां-तहां से भाग-भाग कर, आप जैसी विभूति के दर्शनार्थ आये।
यह थी प्रीति! वह भी निस्वार्थ! जो मानव अपने सुख के लिए नहीं अपितु दूसरी के सुख के
लिए प्रार्थना करता आया हो, उसका जाना हर किसी को वेदना तो
अवश्य देगा ही। वास्तव में आप-
न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्ष, नान्यस्य दु:खे भवति प्रहृष्ट:
।
दत्वा न पश्चात्कुरुतेऽनुतापं, स कथ्यते सत्पुरुषार्यशील: ।।
तीस जून सन् १९८३ / ८४ को राजकीय उद्यान विभाग से फार्म सुपरिटेंडेंट के
पद से सेवानिवृत्त होने के बाद सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया व लेखन कार्य
को अपने जीवन यापन का एक हिस्सा बना कर ऐतिहासिक महत्व की जानकारी समाज को सुलभ करवा
कर इतिहास को सुरक्षित रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।
उद्यान विभाग में सेवा प्रारम्भ करने से मन में सदैव यह विचार रहा कि लोग
कैसे अधिक से अधिक सब्जी का उत्पादन करें अतः "अधिक सब्जी उपजाऊ योजना"
नामक पुस्तिका का सृजन कर समाज हित के लिए पहल की, जिसके अच्छे परिणाम से लेखन के
प्रति रुचि जागृत हुई फिर "गढ़ राज्य शासन की यादें" पुस्तक तो समूचे उत्तराञ्चल
में सराहनीय रही, सिद्धपीठ पुण्यासिनी, टिहरी आद्योपान्त, गढ़वाल एक परिचय, जिन्दगी के चिरस्मरणीय पलों की
श्रृंखला;
जैसी पुस्तकों का सृजन व प्रकाशन
कर लोक हित में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पण्डित श्री जीतराम बहुगुणा जी के यहां २६
जून सन् १९२५ बड़े सुपुत्र के रूप में आपका अवतरण हुआ। आपके दो छोटे भाई स्व० श्री
पदम दत्त बहुगुणा व स्व० श्री देवदत्त बहुगुणा आपसे पहले ही इस असार संसार को अलविदा कह चुके हैं।
उम्मीद नहीं थी कि आपका महाप्रयाण मेरी धारणा के अनुरूप इतनी जल्दी हो जाएगा,
पर आपकी पारी शतकीय नहीं हो सकी, इसका गम अवश्य है व रहेगा। आपका जीवट व्यक्तित्व अनेक
झंझावातों से भरा रहा, उनियाल गांव से पहले परिणय हुआ
किन्तु अपरिहार्य कारणों से उनका शरीर पंचतत्वों में विलीन हो गया फिर ग्वाड़ से सुशिक्षित
संस्कारवान आयुष्मति कमला को श्रीमती कमला बहुगुणा बना कर बालिका इण्टर कॉलेज में अध्यापिका
की भूमिका का निर्वहन करने में सेवारत रखा।
उस समय घर गांव में पुराने बुजुर्ग नहीं चाहते थे कि बहू घर की चार-दीवारी
के बाहर जाकर नौकरी करे। आपने इस मिथक को तोड़ कर उनसे उनकी इच्छा के अनुरूप नौकरी
करवाई, किन्तु जीवन की गाड़ी को खींचने में आपका पूर्ण सहयोग नहीं दे पाई। एक बिटिया
ग्राम भारती विद्या मन्दिर रानीचौंरी में अध्यापिका थी, परन्तु गङ्गा दशहरा के दिन
मां श्री कण्ठा की यात्रा से वापस आते समय वाहन दुर्घटना में अकाल कवलित हो गई। यह
लगभग सन् १९८३- ८४ का हादसा था। जब आप सेवानिवृत्ति की कगार पर थे। आप पर क्या विपत्ति आई; आपके अतिरिक्त इसे कोई नहीं
समझ सकता है। इसके लिए आपने रानीचौंरी विद्यालय को एक कमरा बनवा कर अपना कर्त्तव्य
पूरा किया व अपनी बिटिया की आत्मिक शान्ति की कामना भी की।
नौनिहालों की सुशिक्षा हेतु सहधर्मिणी श्रीमती कमला बहुगुणा के नाम की सरस्वती शिशु मंदिर स्थापना
यही कारण रहा कि आपने नौनिहालों की सुशिक्षा हेतु सरस्वती शिशु मंदिर की
स्थापना कर स्कूल को समाज हितार्थ समर्पित करते हुए अपनी सहधर्मिणी श्रीमती कमला बहुगुणा
को श्रद्धाञ्जली अर्पित कर विद्यालय का समुचित प्रबन्धन किया। आज यह महसूस हो रहा है
कि अब इस विद्यालय का संचालन कौन करेगा व किस तरह करेगा, यह भविष्य के अन्तराल में समाया हुआ है। समाज हित की
भावना से ओत-प्रोत आपने कभी भी अपने को सामाजिक कार्यकर्ता घोषित नहीं किया। परोपकार
की भावना से ओत-प्रोत पर कभी भी पुरस्कार की कामना नहीं, चाहा तो केवल परहित। आपकी समाज सेवा की भावना आजीवन समाज
को आपके यश के रूप में याद रहेगी। "'
लोक दिखावे की भावना से दूर परोपकार के लिए होते थे सभी कार्य
लोकदिखावे की भावना से दूर आपके सभी कार्य परोपकार के लिए ही होते थे। जो
एक अनुकरणीय उदाहरण हैं। कुछ लोग कहते हैं कि "दूध का सार मलाई व जीवन का सार
भलाई " पर उन्हें ही सबसे अधिक कृतघ्नता
करते हुए देखा गया है। आशा यही है कि हम आपसे यह सब कुछ सीख सकेंगे।
आजकल "बिष कुम्भ पयो मुखम्” अनुरूपी मानवों का बोलबाला है
" सच कठोर होता है, सत्य कड़वा होता है उसे कोई भी
व्यक्ति सुनना पसंद नहीं करता है, यहां तक कि सच बोलने वाले को लोग
कम पसन्द करते हैं, कम देखना चाहते हैं। आजकल ऐसे
मानवों का बोलबाला है जो "बिष कुम्भ पयो मुखम्" के अनुरूप हैं। शायद एक छोटा सा उदाहरण पर्याप्त
होगा आज के मानव को समझने के लिए। "एक जगह ऐसा व्यक्ति भी निवास करता था, जो सम्मुख
बहुत मीठा पर पीठ पीछे गरल वमन वह भी बहुत नाटकीय ढंग से किया करता था, असत्य बोलने में महारथ हासिल थी, किसी के पास दूसरे की
बुराई नपे तुले शब्दों में व दूसरे के पास पहले वाले की बुराई आत्मीयता के साथ
" शायद सभी लोग ऐसे नहीं होंगे? परन्तु ऐसे लोगों के प्रवृति से
अनेक लोग सन्तप्त अवश्य रहते होंगें व मन ही मन दु:खी भी रहते होंगे पर-? आप व्यक्ति हित में सम्मुख स्पष्ट
वक्ता हेतु सदैव स्मरण रहेंगे। अपने साथियों या अधिकारियों में भी स्पष्ट बोलने के
लिए पहिचाने जाते थे । भरसार के उद्यान में आपके साथ काम करने वाले व्यक्ति ने आपकी
इस खूबी का वर्णन कर अपने संस्मरणों से हमें भी रूबरू करवाया था। रैथल उत्तरकाशी में
आपकी कार्यशैली का मैं भी प्रत्यक्ष दर्शी
रहा हूं । शायद वह रुक्षता अपने स्वभाव में आपका संसर्ग का परिणाम भी हो सकता है। ऐसा
व्यक्तित्व मिलना अब सम्भव नहीं है। "
" जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च अर्थात् जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित
है और मरे हुए का जन्म भी निश्चित है, इस सम्पूर्ण विश्व में जन्म मृत्यु
का यह क्रम घूम - घूम कर चल रहा है। हर जन्मे व्यक्ति को एक न एक दिन शरीर छोड़ने को
विवश होना ही पड़ता है । मृत्यु से बचना कठिन है , यह एक ऐसा ध्रुव सत्य है जिसे
झुठलाना सम्भव नहीं है और न ही बच पाना सम्भव है । आपने मृत्यु को एक उत्सव की तरह
देखा, मृत्यु से कभी भी नहीं डरे, तभी तो आपने जीवन रूपी अवसर का सम्यक् उपयोग किया और
चिरनिद्रा को सहज स्वीकार किया। मेरे मानने से आपने जीवन के सौभाग्य का भरपूर आनन्द
लिया। आप आस्तिक थे किन्तु ढोंगी नहीं, भक्त थे पर स्वार्थी नहीं, दयालु थे पर मोह जाल से मुक्त।
अनेक विशेषताओं का संगम था आपका व्यक्तित्व। इसी कारण अधिकांश विद्वत् समुदाय
आपके अनुयायी रहे। सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति आपका भौतिक शरीर आज हमारे बीच नहीं हैं,
किन्तु यश शरीर से आप सदैव हमारे बीच हैं और रहेंगे। आज आपको याद कर अतीत में कहीं खोया हुआ अपने आप
को पा रहा हूं। आपके लिए केवल-
विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:। निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति।।
आपको भावभीनी श्रद्धांजलि के
साथ कोटि-कोटि नमन व श्रद्धासुमन सादर समर्पित करते हुए आपकी दिवंगत आत्मा की शान्ति
की कामना करता हूं तथा शोक संतप्त परिजनों व परिवार को इस महान वेदना को सहन करने की
शक्ति प्रदान करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूं। ॐ शान्ति ॐ ।
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