न्यूज़ वर्ड @कवि सोमवारी लाल सकलानी निशांत, सन 1926 में जब पदम दत्त रतूड़ी इंग्लैंड से जंगलात संबंधी प्रशिक्षण प्राप्त करके वापस आ गया तो मह...
न्यूज़ वर्ड @कवि सोमवारी लाल सकलानी निशांत,
सन 1926 में जब पदम दत्त रतूड़ी इंग्लैंड से जंगलात संबंधी प्रशिक्षण प्राप्त करके वापस आ गया तो महाराजा नरेंद्र शाह ने उसे कंजरवेटर के पद पर नियुक्त किया।
1928 में नरेंद्र शाह ने बंदोबस्त की योजना बनाई। इस वन बंदोबस्त के अंतर्गत जंगलात भू बंदोबस्त (डीमारकेशन) नाम दिया गया । पदम दत्त रतूड़ी इसका अध्यक्ष बना। यह वन व्यवस्था किसानों के हितों के विपरीत थी। मध्य हिमालय का एक बड़ा भूभाग जो पशुपालन और कृषि पर आधारित था और जंगलों पर आश्रित था महाराजा ने अपनी आय को बढ़ाने के लिए उसको प्रतिबंधित कर दिया । किसानों में आक्रोश उत्पन्न हो गया। कृषि और पशुपालन यहां का मुख्य व्यवसाय था। किशन का यहां सीधा संबंध बन भूमि से था ।
नरेंद्र शाह ने एक व्यवस्था की योजना बनाई जैसे कृषकों के खेतों से लेकर खलियानों तक सटी हुई सीमा खींचकर मुरारबंदी कर दी गई। कृषक परिवारों की कृषि भूमि को सीमित सीमा में बांधकर, क्षेत्र को राज्य की व्यक्तिगत संपत्ति विधान बनाकर घोषित कर दी गई । जंगल की हरी लकड़ी से लेकर सूखे गिरे हुए पेड़ों पर राज्य का अधिकार घोषित कर दिया गया। वन संपदा पर राज्य की प्रजा की न तो भागीदारी रही और न उनके अधिकार और हितों का ध्यान रखा गया।
नरेंद्र शाह के अंतिम दिनों में भूमि बंदोबस्त के कारण राज्य में जो विद्रोह हुए कालांतर में और राजशाही के अंत के रूप में भी प्रकट हुए। वन व्यवस्था के विरोध में संपूर्ण टिहरी रियासत में विरोध के स्वर सुनाई दिए किंतु सामूहिक रूप से खुलकर रवाईं क्षेत्र के अतिरिक्त रियासत का अन्य भागों पर इसका बड़ा रूप नहीं दिखाई दिया।
रवाई क्षेत्र में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई । इस प्रतिक्रिया ने जब विकराल रूप धारण किया तो क्षेत्र का एक प्रभावशाली वर्ग जनसाधारण के विरुद्ध मैं खड़ा हो गया। जो कि परंपरागत चाटुकार और सत्ता का भक्त था। राजशाही के अधिकारी और कर्मचारियों की मिलीभगत से अन्याय और शोषण चरम पर था । उनके दोनों हाथ लड्डू थे । सामान्य जनता पर अपने प्रभाव को स्थापित करना और आर्थिक लाभ लेकर सामाजिक और राजनीतिक लाभ भी प्राप्त करना ।
जब नरेंद्र शाह पश्चिमी देशों के अपने भ्रमण पर थे तो ठीक उसी समय एक बंदोबस्त की टोली ने रवाई की भूमि में पदार्पण किया और योजना के अनुसार इस बंदोबस्त संबंधी कार्यवाही प्रारंभ कर दी । ग्रामीणों को जब इस नीति का ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसका विरोध करना शुरू किया। स्वतंत्र सामूहिक पंचायत गठन करने का निर्णय लिया गया।
हमारे जौनपुर क्षेत्र की दो पट्टियां गाडर -खाटल के रवाई से जुड़े होने के कारण , पहले से यह अच्छे संबंध रहे और बाद में उत्तरकाशी तहसील बन जाने के कारण इन पट्टियों को रवाई क्षेत्र में मिला दिया गया दोनों पट्टी की जनता ने वन विद्रोह में समान भागीदारी निभाई। जब ग्राम सभाओं की स्वतंत्र पंचायत गठन होने लगी तो जंगलात प्रबंध की टोलियां और वन कर्मियों को किसी प्रकार का सहयोग न करने का ऐलान किया गया।
रवाई की चांदा डोखरी शासन की भाषा में सशक्त विद्रोह का प्रतीक थी।
रियासती सरकार ने जगह-जगह अफवाह फैलाई के रवाई में ढडक हो गया है । ग्रामीण लोग ऐसा कुछ नहीं करना चाहते थे कि जिससे आंदोलन हिंसक हो जाए।लेकिन राजशाही ने इसे राजद्रोह की संज्ञा दी। जनता ने प्रतिदिन "चांदा डोखरी " स्थान पर विचार विमर्श करना शुरू किया। रियासत के तत्कालीन दीवान चक्रधर जुयाल को पूर्व दीवान श्री हरि कृष्ण रतूड़ी ने काफी समझाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माना। उस समय राजगढ़ी नामक स्थान पर परगना अधिकारी सुरेंद्र दत्त नौटियाल नियुक्त था। उसने कथित रूप से जवान सिंह, रूद्र सिंह ,दया राम ,राम प्रसाद आदि को अभियुक्त घोषित करा दिया तथा टिहरी जेल भिजवाने के आदेश दे दिए। जैसे ही लोगों को पता चला, जनता में आक्रोश फैल गया। कर्नल सुंदर सिंह तथा दीवान चक्रधर काफी क्रोधित थे। नत्थू सिंह कमांडिंग का पद संभाले हुए थे। यद्यपि चक्रधर जुयाल मन ही मन सोचते हुए भयाक्रांत भी था कि नरेंद्र शाह की अनुपस्थिति में जितने भी गंभीर निर्णय उनके द्वारा लिए जा रहे हैं, जो भीषण कांड हो रहे हैं ,वह कालांतर में घातक भी सिद्ध हो सकते हैं।
30 मई 1930 (17गते जेठ) को चक्रधर जुयाल सेना, पुलिस और रियासती हुजूम के साथ, सर्वोच्च वन पदाधिकारी पदम दत्त रतूड़ी के साथ ,धरासू होकर राजगढ़ी पहुंचा। सरकारी लाव - लस्कर पहुंचने की सूचनाएं लोगों को मालूम है। परिणाम स्वरूप लोग तिलाड़ी के मैदान में अधिक से अधिक आंदोलनकारियों के रूप में एकत्रित हो गए। राजगढ़ी पहुंचकर चक्रधर ने आंदोलनकारियों को नवीन गतिविधि का ज्ञान प्राप्त कराया। दरअसल वह आंदोलन को शक्ति से दबाना चाहता था।
जब दीवान चक्रधर ने जनसैलाब पर दृष्टि डाली उसने अपनी निर्धारित योजना के अंतर्गत सेना और पुलिस की टुकड़ियों को गोली कांड का संकेत कर दिया तो सेना और पुलिस ने चारों ओर से आंदोलनकारियों को घेर दिया गया और। यह घटना 30 मई 1930 की है ।फौज और पुलिस ने आंदोलनकारियों को बेरहम क्रूर तरीके से गोलीकांड का शिकार बनाया।
आंकड़ों के अनुसार 17 आंदोलनकारी मैदान में ही शहीद हो गए ।बड़ी संख्या में लोग घायल हुए और इधर-उधर भागे । उस दृश्य को देख कर के इतिहास में नादिर शाह, चंगेज खान , तैमूर लंग , गजनवी ,गोरी आदि जैसे लुटेरों के द्वारा की गई हत्याओं का भी इतिहास दोहराया गया। इस प्रकार का जो क्रूर हत्याकांड किया गया, वह जलियांवाला बाग कांड को भी मात दे गया।
इस जघन्य हत्याकांड के बाद चक्रधर अपनी बर्बर और लुटेरी सरकारी टोली के साथ टिहरी पहुंचा। टिहरी में उसका विजय उत्सव मनाया गया। जैसे कि वह किसी दुश्मन क्षेत्र को जीत कर के आया हो।दीपावली मनाई गई। राज्य कर्मचारियों ने घूम घूम कर प्रचार किया कि राज आज्ञा का उल्लंघन करने वालों का ऐसा ही हश्र होगा।
तिलाड़ी बर्बर गोली कांड में 17 व्यक्ति मैदान में ही शहीद हुए थे। 68 व्यक्तियों पर मुकदमे चले। 01वर्ष से लेकर 20 वर्ष तक का कारावास की सजा तथा अर्थदंड दिया गया।
1931 में इस कांड से संबंधित लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए विशेष पैनल बनाया गया। राजा नरेंद्र शाह, चक्रधर दीवान, सेना के अधिकारी तथा अन्य पदस्थ राज्य कर्मचारी उसमें शामिल थे। 15 व्यक्ति टिहरी की हत्यारी जेल में कष्ट पाने के कारण तड़प तड़प कर मर गए। आज भी खिलाड़ी कांड को याद करके लोगों की देह सिहर जाती है।
उस समय पढ़ाई लिखाई का स्तर राज्य में बुरा था लेकिन आज पत्रकारिता दिवस पर मैं यह भी कहना चाहूंगा कि तत्कालीन "साप्ताहिक गढ़वाली" के संपादक बिशम्बर दत्त चंदोला से इस हत्याकांड को सुर्खियों में प्रकाशित किया था।
तिलाड़ी गोली कांड का दूरगामी प्रभाव हुआ जो कि कालांतर में टिहरी रियासत के अंत का प्रतीक बना
तिलाड़ी गोली कांड के बाद महाराजा नरेंद्र शाह विदेश से वापस लौटे और घटना चक्र के बारे में उन्हें विदित हुआ कि शीर्ष राज्य कर्मी चक्रधर जुयाल , पदम दत्त रतूड़ी, नत्थू सिंह सजवान व पुलिस तथा अन्य अधिकारी कर्मचारियों की भूमिका इसमें थी । तब भी नरेंद्र शाह ने पीड़ित जनता के प्रति सहानुभूति दिखाने के विपरीत, कांड में सम्मिलित राज्य कर्मचारियों की पीठ थपथपाई और पैनल बनाकर उनका अध्यक्ष बन बैठा। तिलाड़ी गोली कांड का दूरगामी प्रभाव हुआ जो कि कालांतर में टिहरी रियासत के अंत का प्रतीक बना।
आज ही के दिन 30 मई सन 1930 को तिलाड़ी गोली कांड में , तिलाड़ी के मैदान में जो लोग शहीद हुए उनमें उत्तरकाशी के अजीत सिंह, झूना सिंह , गौरु सिंह, नारायण सिंह, भागीरथ मिस्त्री, हरिराम आदि का विवरण मिलता है। इसके अलावा टिहरी केगुंदरू, गुलाब सिंह, ज्वाला सिंह, जमन सिंह , दिल्ला ,मदन सिंह, लूद्र सिंह आदि का लिखित इतिहास पुस्तकों में प्राप्त होता है। उदय सिंह ,करण सिंह, कमल सिंह, काशीराम ,किशन दत्त ,कुंवर सिंह, केदार, खेमचंद ,गजमल, चेतू, जयपाल, गमरा ,जोत सिंह ,तेज सिंह, दयाराम ,दलपति, दलितों दिलदास, देवी सिंह, भूप सिंह धूम सिंह नत्थू नागरमल परमा बालमूव बेशराम ब्रह्मी भगीरथ भवा भगवान सिंह निकेश सिंह भोपाल सिंह मोर सिंह ,मायाराम ,रघु ,रती राम ,राम प्रसाद, राम कृष्ण, रुद्रा सिंह ,सीता, सुरजू, सुरपाल आदि 60 लोगों का उल्लेख भी वर्णित है जिन्हें कारावास का और अर्थदंड भी भुगतना पड़ा। कुल मिलाकर रवाई का यह तिलाड़ी गोली कांड, जलियांवाला बाग कांड के समान ही क्रूर और खूनी कांड था, इसकी जितनी भी इसकी निंदा की जा सके कम ही कम है।
तिलाड़ी गोलीकांड के अमर शहीदों, क्रांतिकारियों को मै श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि इस प्रकार की लोहमर्मक घटनाओं की किसी भी युग में, किसी भी शासन प्रणाली के अंतर्गत पुनरावृति न हो। साथ ही पत्रकारिता दिवस के अवसर पर "गढ़वाली साप्ताहिक" के संपादक स्वर्गीय श्री विशंभर दत्त चंदोला जी को भी नमन करता हूं, जिन्होंने इस जघन्य गोलीकांड के बारे में दूर दूर तक संदेश दिया,जो कालांतर मे समांतशाही के अंत का परिणाम बना।
कोई टिप्पणी नहीं