सुपरिचित शिक्षा विद एवं साहित्य मर्मज्ञ श्री राकेश चंद्र जुगरान की काव्य कृति "अंतर्द्वंद" की झलक पाते ही मन अतीत की मधुर स्मृति...
सुपरिचित शिक्षा विद एवं साहित्य मर्मज्ञ श्री राकेश चंद्र जुगरान की काव्य कृति "अंतर्द्वंद" की झलक पाते ही मन अतीत की मधुर स्मृतियों में समा गया। श्री जुगरान विशुद्ध वैज्ञानिक परिवेश में पले बढ़े लेकिन बाल्यावस्था से ही साहित्य उनके स्वभाव में बसा है ।प्रकृति की क्रोड में पल बढ़कर उनकी रचनाओं में संस्कारित व कोमल भाव संग्रहित हैं। प्रकृति को मां का आदर देते हुए उनकी कविताओं में अनूठी भाव अभिव्यक्ति है ।
अंतर्द्वंद वह सब कुछ बयां
कर देती है जो हर हृदय का मुखर भाव है। कविताओं में मात्र संवेग व द्वंदात्मक ता न
होकर अंतर मन को छूने वाली भावनाएं नियत हैं। यथा -
शुभ्र हिमालय से उतरी /मृगनैनी
सी चंचल सरिता/ जीवन के कलरव क्रंदन में /तुम राग रागिनी भर जाओ ।
क्या उद्दात कल्पना है ! क्या भाव दर्शन का ताना-बाना है ! राग रागिनी का अंतर्द्वंद ना होकर एक आत्मकथा
का भाव दर्शन है। संपूर्ण काव्य संग्रह और उसमें समाविष्ट सुंदर कविताएं मुक्तक के
रूप में स्वतस्पुर्त स्वर प्रदान करती हैं
। हृदय को झंकृत करती हुई अंततः साध्य बन जाती हैं ।
प्रकृति का सुंदर रूप सर्वत्र
आलोकित है। अंतर्द्वंद झलकता है तो सूक्ष्म कड़ियों में। यथा-
हे आर्य तुम्हारे यह कार्य
बन गए, जी का त्रास/ गले की फांस मेरे लिए गली मोहल्ले खड़ी है लंका / रावण ही
रावण मैं राम नहीं बन पाऊंगा।
और कभी के हृदय की पीड़ा घनीभूत
होकर कह देती है,
हे शेषनाग तू भी फंकार /थरथर
ब्रह्मांड तांडव अपार/
कर धनु तंकार भर भर हुंकार
/खड्ग उठा दानव संघार ।
बस यही है कभी के मन के" अंतर्द्वंद " प्रकृति के समीप होने
पर कवि के मन में एक विचार उत्पन्न होते हैं ।जो कभी का भाव बन जाते हैं ।तो कभी दर्शन
के रूप धारण कर देते हैं ।
यथा - शब्द जब होने लगे अर्थहीन
खोखले / नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ाया जाता है/ कवि का सौभाग्य रहा है कि यायावर बन राज
धर्म के साथ-साथ विभिन्न सुरम्य, बीहड़ ,स्थलों को उन्होंने देखा है ।बाल्यकाल से ही स्थान
स्थान पर रहकर शिक्षा सेवा और योगदान दिया है। देश विदेश की अनेक परिस्थितियों स्थितियों
की छाप काव्य संग्रह में साफ झलकती है।
गांव पहाड़ से लेकर सागर
तट कि उन्होंने शहर की है वीरान वादियों से लेकर भीड़भाड़ वाले नगरों से भी नाता जोड़ा।
परिस्थितियों व स्थितियों से तादात्म्य स्थापित कर अपने हृदय की आवाज अंतर्द्वंद में
प्रकट किया है। जैसे ,
प्यारे भैया जब पहाड़ में आओगे/
हवा तुम्हें सहलाएगी।
या , मेरा गांव है शहर से दूर / जहां
हर वक्त पर है नूर ।
या , है उदास शाम भी बरगद उदास है/ गांव के हालात पर हर से उदास है।
पहाड़
के बारे में कवि की स्पष्ट सोच है।
पहाड़ नहीं है सिर्फ भौगोलिक
आकृति/ नदी झरनों जंगलों का प्रदेश मात्र/ पहाड़ एक जीवन दर्शन है /
कवि का बाल्यकाल सौंग की उपत्यकाओं
से लेकर अमृत नीरा अलकनंदा के श्री क्षेत्र में व्यतीत हुआ है ।
अतः कविता के सुंदर रूप यत्र
तत्र उभरते हैं ।
सुंदर निर्मल गंगा तीरे पथिक चलो धीरे धीरे /धवल सुधा रस मधु घट से बूंद
बूंद अमृत पी रे।
"अंतर्द्वंद" की प्रत्येक
कविता सार युक्त है ।जितना भी लिखा जाए कम ही कम है ।
कवि चिर परिचित होने के कारण
,एक एक कड़ी में उनका व्यक्तित्व का बोध कराता है । चिंतन के भाव तले दब
जाता है।
झिंगुरों का समवेत स्वर झंकृत
कर देता सर्वांग ।
हे नियंता इस अद्भुत संरक्षण
और अल्लाह को कोटि प्रणाम ।
श्री राकेश चंद्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं । विज्ञान का विशद ज्ञान
होने के कारण साथ-साथ प्रशासनिक कुशलता वाला व्यक्तित्व है । गजब की सृजनशीलता और व्यावहारिकता
जन्मजात है । आप की कविताओं में रस है ,छंद है ,ज्ञान है,करुणा है , ओज है और नीरवता का भी है।
और देखते ही देखते घरों ने
झुका दी गर्दनें/ मासूम बच्चा घर पर बैठे कबूतरों को निहार रहा है /घर पर बैठे कबूतर
सृजन की घोषणा करते अपनी पंख फैलाए /दूर आकाश में छा जाते हैं।
मानवीकरण के साथ आशा और विषाद
का अंतर्द्वंद कविता में झलकता है। लेकिन कवि
आशाओं के संसार में जीता है । प्रत्येक कविता की प्रत्येक कड़ी का अर्थ है।
हिमालय, गंगा ,प्रकृति के प्रति प्रेम, कवि के मन में कूट-कूट कर भरा
है। सब कुछ बयां कर देती है । आह !अद्भुत यह नजारा/ जग नियंता ने संवारा/वन लताएं चूमती
है/संग मिलकर झूमती हैं ।
कवि आम आदमी से लेकर जीवन दर्शन, भीड़ से लेकर ,वजूद पर गर्व महसूस करता है।
परिवर्तन ,मिथ्या विकास आदि पर स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी देता है।
समग्र रूप से उनकी कविताओं
में मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ प्रकरण व संस्कृति संरक्षण का भाव छपा है। रचना धर्म
को आगे बढ़ाते हुए कवि का सर्वाधिक ध्यान प्रकृति के प्रति प्रेम आदर को इंगित करता
हुआ, बढ़ता है ।
आलोकित सौन्दर्य विशाल /किल किल होता है सुर ताल/
तन मन को देती शीतलता/मां तुम
बहती हो निष्काम ।
भाव, अनुभूति, सरसता और नाद का सुंदर समन्वय कविताओं में है। कवि पाठक को शब्द जाल में नहीं
उलझाता। उसे आगे बढ़ता हुआ, मर्मां तक भावनाओं को उद्वेलित करता हुआ, ऊंचाइयों तक चला जाता है। और दे जाता है
- जीवन जीने की सीख। "अंतर्द्वंद
"कुल मिलाकर अंतर मन की आवाज है ।
समीक्षक - कवि : सोमवारी लाल सकलानी, निशांत ।
सुमन कॉलोनी, चंबा (टिहरी गढ़वाल)
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