News Word Special @ कवि: सोमवारी लाल सकलानी , निशांत, विश्व पर्यावरण दिवस: पांच जून विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर यूं तो हम वर्षों से व...
News Word Special@ कवि: सोमवारी लाल सकलानी, निशांत,
विश्व पर्यावरण दिवस: पांच जून विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर यूं तो हम वर्षों से विश्व पर्यावरण दिवस मनाते आ रहे हैं और पर्यावरण के प्रति संचेतना और जन जागरूकता के लिए कुछ न कुछ पहल करते रहे हैं ।दुर्भाग्य की बात यह है कि हम प्रत्येक अच्छी चीज को नकारते चले आते हैं क्योंकि उससे हमें प्रत्यक्ष भौतिक लाभ नहीं मिलता है।
भू-मंडलीय समस्या: कई दशकों से हम ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत का ह्रास, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, वनों का कटान, दावानल, भूकंप, ज्वालामुखी, सामुद्रिक प्रदूषण आदि के बारे में सुनते चले आ रहे हैं और कभी न कभी इन प्राकृतिक आपदाओं से रू-ब-रू भी हो रहे हैं। यह प्राकृतिक आपदाएं मानव की करतूतों का दुष्परिणाम है।
सुंदर धरती को हमने नर्क बनाया: ईश्वर ने हमें सुंदर धरती जीने के लिए दी थी। उसे हमने कुरूप बना लिया है। वर्षों पहले मैं अपने छात्र - छात्राओं को एलिंग प्लेनेट: द रोल्स ऑफ ग्रीन रिवॉल्यूशन के बारे में भी पढ़ाता आया। आर लेस्टर ब्राउन की पुस्तक द इकोनामिक प्रोस्पेक्ट्स के बारे में भी छात्र - छात्राओं को जानकारी देता आया हूं कि किस प्रकार से हम लोगों ने वनों का नाश कर लिया है, मत्स्य क्षेत्रों को समाप्त कर लिया है, ग्रास लैंड्स को खत्म कर दिया है और कृषि भूमि की स्थान पर कोनोलाइजेशन कर लिया है। इस प्रकार से हमने जो चार जीव वैज्ञानिक परितंत्र हैं ,उनके प्रति छेड़छाड़ करके उन्हें विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। जिसके कारण प्रकृति रूठ कर के हम से बदला लेने के लिए हर समय मौजूद है और उसका खामियाजा संपूर्ण मानव जाति भुगत रही है।
मनुष्य सबसे खतरनाक पशु: संसार के सबसे खतरनाक पशुओं में मनुष्य का स्थान आता है। उसने अपनी भौतिक तृप्ति के लिए जल, जंगल ,जमीन ,पर्यावरण ,आकाश ,समुद्र हवा -पानी आदि सब को दूषित कर लिया है। अपनी भोग लिप्सा को शांत करने के लिए विकास के नाम पर उसने प्रकृति का अनियोजित दोहन किया है । सरकारों से लेकर प्रशासन, विभागों से लेकर आम जनता तक ,पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नहीं रही है।
प्रकृति के विनाश में माफिया का हाथ: ग्रीष्मकाल में जंगलों को जला दिया जाता है। यह कोई प्रकृति जनित नहीं बल्कि मानव जनित दुष्कर्म है। विकास के नाम पर अंधाधुंध दोहन करके, पर्वतीय भागों को काटा जा रहा है । बड़ी-बड़ी मशीनों के द्वारा पूरी पारिस्थितिकी का विनाश किया जा रहा है। इस कार्य में भू माफियाओं, खनन माफियाओं, वन माफियाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है
परिवेश की अनदेखी: खेद की बात यह है कि हम अपने ही क्षेत्र, परिवेश, गांव ,शहर में इस प्रकार के कुकृत्यों के प्रति आंखें मूंद देते हैं। शासन- प्रशासन ,मीडिया, पर्यावरणविद, समाजसेवी न जाने किस जहर का घूंट पीकर चुप बैठ जाते हैं तथा यदा कदा भू- माफियाओं ,पर्यावरण विरोधियों प्रकृतिहंताओं के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं। या तो उनके द्वारा उन्हे सीधा आर्थिक लाभ होता है या वह वोट बैंक के चक्कर में इन मामलों में आंखें मूंद लेते हैं । जनता इन माफियाओं से डरती है और उनके खिलाफ खुली आवाज नहीं उठा सकती है । आज के समय में पर्यावरणविद इतना अच्छा कार्य नहीं कर रहे हैं जितना कि 70 - 80 के दशक में लोग करते थे।
हिमालयी पर्यावरण संरक्षण के नायक: हिमालयन क्षेत्र में गौरा देवी, सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, धूम सिंह नेगी, आलम सिंग, कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, दयाल भाई, नवीन नौटियाल, विजय जड़धारी, सुदेशा बहन, गंगा प्रसाद बहुगुणा, विश्वेश्वर दत्त सकलानी आदि के द्वारा पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में किए गए कार्यों को कौन भूल सकता है, जिन्होंने माफियाओं से टक्कर ली और जीवन पर्यावरण के लिए समर्पित कर लिया। हम बड़ी-बड़ी बातों पर हम आख्यान देते हैं, बातों को हम अपनी भाषा और तर्कों के द्वारा अमल करने की बात करते हैं, लेकिन अपने आस-पास के क्षेत्र, परिवेश और पड़ोस में क्या हो रहा है, इन तथ्यों पर ध्यान नहीं देते या ध्यान नहीं देना चाहते हैं।
समझना जरूरी: पराली के समय हम बढ़-चढ़कर के कहते हैं कि इस को जलाने से महानगरों में वायु प्रदूषण का खतरा बढ़ गया है। यहां तक कि इसके कालिक (स्यूट) से ओजोन परत में छेद होता जा रहा है लेकिन हम अपने घर में रखे हुए फ्रिज ( रेफ्रिजरेटर) कूलर, दाढ़ी बनाने के फोम, सिंथेटिक पेंट्स के द्वारा कहता नुकसान हो रहा है, इसके बारे में संवेदनशील नहीं है। भीमकाय फैक्ट्रियों से उगालता हुआ धुआं, रेडिएशन, कल-कारखानों का कचरा, सीवर की निकासी और अरबों टन कूड़ा हम नदियों, नालों, खालो और नारदानों में बहा देते हैं । जल को हमने दूषित कर दिया है। हवा को हमने जहरीला बना दिया है। पृथ्वी को हमने रहने लायक नहीं रखा। आकाश में हम ने कब्जा कर लिया है। जिसके कारण आज धरती पर विकट समस्याओं को उत्पन्न हो चुकी है। कुछ दशकों से धरती का तापमान 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ पर चुका है। लगातार बढ़ोतरी होती रहे तो महाद्वीपों, सागरीय द्वीपों आदि पर डायरेक्ट असर होगा। हमारे अनेक द्वीप और शहर जलमग्न हो जाएंगे। अतिवृष्टि, अनावृष्टि की समस्या उत्पन्न होगी और प्राणी मात्र का विनाश निश्चित है।
राजनीति भी एक कारक: ज्वालामुखी, भूकंप, बादल का फटना, आकाशीय बिजली गिरना, चक्रवाती तूफान आना, प्रकृतिजन्य घटनाएं हैं। जिनको हम अपने ज्ञान - विज्ञान और सूझ-बूझ के द्वारा कम कर सकते हैं, लेकिन मानव जनित जो प्रदूषण और धरती का विनाश किया जा रहा है, उसके प्रति हम संजीदगी से पेश नहीं आ रहे हैं । सारा ठीकरा सरकारों के सिर फोड़ देते हैं। पक्ष -विपक्ष की, सड़कों से संसद तक की लड़ाई में केवल मूक दर्शक बन सीमित रहते हैं। पुख्ता कुछ भी करने का प्रयास नहीं करते हैं।
जन प्रतिनिधियों और ठेकेदारों का गठजोड़: पर्वतीय क्षेत्रों में न जाने किसकी नजर लगी है! हरे-भरे जंगलों को, नंगे खूबसूरत पहाड़ों को, नदी घाटियों को, धार-खाल को तथाकथित जनप्रतिनिधि, ठेकेदारो के साथ मिलकर समाप्त करने पर तुले हैं। उन्हें सरकारी संरक्षण प्राप्त है। जनता उनके गिरोहों से डरती है। कुछ लोगों के अपने निजी स्वार्थ है। जिनके कारण वे आवाज उठाने में अक्षम है। पर्यावरणविद भी सुविधा भोगी और अकर्मण्य बनते जा रहे हैं, वरना क्या मजाल थी कि हरी-भरी धरती का जितना विनाश करने में स्थानीय लोगों का हाथ है उतना किसी और का नहीं। लगता है, इनको खुली छूट प्राप्त है।
जन आंदोलनों की भूमि रहा पहाड: उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जन आंदोलनों का बड़ा प्रभाव रहा। चाहे वह चिपको आंदोलन हो, खनन विरोधी आंदोलन हो, बड़े बांधों के विरुद्ध आंदोलन हो, शराब माफिया के खिलाफ आंदोलन हो या वनों के अवैध कटान के विरुद्ध आंदोलन हो। समाजसेवी और पर्यावरणविदों ने केवल नकारात्मक ही आंदोलन नहीं किए, बल्कि विश्वविद्यालय बनाओ आंदोलन, उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन आदि में भी सक्रिय भूमिका अदा की है, लेकिन इन आंदोलनों की आड़ में तुर्रा किस्म के लोगों ने ज्यादा फायदा उठाया और अपना उल्लू सीधा किया।
अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं सब: अभी समय है कि हम सबक सीखें और अपने परिवेश पारिस्थितिकी और पर्यावरण के प्रति जागरूक रहें। सुनियोजित विकास करें। आर्थिक संसाधनों को कृषि, बागवानी, पशुपालन, कुटीर उद्योगों, शिक्षा, स्वास्थ्य, लघु और कुटीर उद्योगों द्वारा भी बढ़ाया जा सकता है, जिससे कि हजारों लोगों को रोजगार प्राप्त होता है। कथित विकास के नाम पर चंद लोगों की ही स्वार्थ पूर्ति होती है। वृक्षारोपण के नाम पर सरकारी और वन विभाग की भूमि पर अवैध कब्जा करते हैं। गरीबों को आवंटित प्लाटों पर कब्जा करते हैं। नदी-नालों की जमीन को खुर्द बुर्द करते हैं और प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार समझते हैं। वह एक दशक में धन्ना सेठ बन जाते हैं और असहाय जनता उनकी तरफ ही ताकती रहती है। परोक्ष गुलामी का शिकार बनती जाती है। क्षेत्रवाद, जातिवाद,भाई-भतीजावाद, सांप्रदायिकतावाद आदि की आड़ लेकर यह लोग जनता को गुमराह करते हैं और अपने हितों की रक्षा करने के लिए परस्पर विद्वेष भी फैलाते हैं।
मीडिया की भूमिका: देव भूमि की पारिस्थितिकी और भू -रचना के अनुरूप कार्य किए जाने लाजमी हैं। प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। वह माफियाओं की करतूतों पर पैनी निगाह रखें और दूध का दूध और पानी का पानी करें। बड़ा आदमी कोई भी अपने कर्मों से बनता है। स्वार्थी और घटिया मानसिकता के लोगों से समाज ,देश और प्रकृति का भला नहीं हो सकता। यद्यपि वे अपने आप ही अपराध बोध से अपने को कोसते रहते हैं, लेकिन अगर कोई टोकने वाला नहीं है ,तो फिर उनके हौसले बुलंद हो जाते हैं और वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं । आज के समय में जीते जागते उदाहरण हैं
कोरोना काल में भी माफिया की मौज: विगत वर्षों से कोरोना काल में जहां लॉक डाउन या कर्फ्यू लगा है आम आदमी डर के कारण बाहर नहीं निकल रहा है लेकिन माफियाओं की मौज है। अंधाधुंध दिन-रात जेसीबी मशीन लगा कर के पहाड़ों को काट रहे हैं। पत्थर बेच रहे हैं। अनियोजित निर्माण कार्य कर रहे हैं। अपविष्ट, गंदगी, मलबा, मनमर्जी के मुताबिक जंगल और नाले खालों में डाल रहे हैं। उन्हें न पर्यावरण की चिंता है न पारिस्थितिकी की। केवल अपने पेट की चिंता है ।अपनी पीढ़ियों के लिए धन कमाने की लिप्सा है। प्रशासन शासन भी इनके काली करतूतों को देखकर आंखें मूंद लेता है या इनके हाथ इतने लंबे हैं कि सरकार पर भी अपना दबाव बना लेते हैं। अनेकों प्रत्यक्ष प्रमाण अपने इर्द-गिर्द ही मिल जाएंगे।
व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान देना होगा: सैद्धांतिक बातें हमें पढ़ने लिखने और सुनने के लिए किताबों में मिल जाएंगी, लेकिन व्यावहारिक जगत में यदि हम देखें तो आम आदमी के खिलाफ कानून है। आम आदमी के लिए मान मर्यादाएं हैं। लेकिन माफियाओं के लिए न कोई कानून का डर है, न कोई व्यवस्था है और न कोई नैतिकता इनके अंदर है। राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होने के कारण यह मीडिया का भी मुंह बंद कर लेते हैं। मजबूरी में सामान्य व्यक्ति इनके खिलाफ बोलने का साहस नहीं करता। जरूरत इस बात की है कि हम अपनी भावी पीढ़ी के प्रति संवेदनशील रहते हुए पर्यावरण का संरक्षण करें। पारिस्थितिकी पर ध्यान दें। पर्यावरण और पारिस्थितिकी केवल विश्वविद्यालयों की शिक्षा का ही माध्यम न बनाएं बल्कि व्यावहारिक जगत पर क्रियात्मक कार्य करें, जैसे कि हमारे पूर्वज करते आये हैं।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता
राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर ध्यान देना जरूरी है। व्यवस्था के दोष के कारण माफियाओं का एकछत्र साम्राज्य है ।उन्हें न ज्ञान-विज्ञान से, न प्रकृति और पर्यावरण से कोई सरोकार है। अपनी भौतिकवादी लिप्सा प्राप्त करने के लिए सत्ता शक्ति और धनबल के आगे ये इतने मदहोश हैं कि अपने आप को सुरक्षित रहते हुए, दुनिया के लिए खतरा बन चुके हैं। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसके लिए समग्र सोच की आवश्यकता है। पर्यावरण की रक्षा करना हम अपना कर्तव्य माने। पारिस्थितिकी को अपने जीवन का अंग बनाएं। अपने आस-पड़ोस और स्थानीय लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होने के प्रति जागरूक करने का प्रयास करें। खाली उपदेशों तक सीमित न रहें। क्रियात्मक कार्य करें। तभी जीवन के लिए धरती को बचाया जा सकता है और हमें प्राकृतिक आपदाओं के साथ-साथ मानव जनित बुराइयों से भी छुटकारा प्राप्त हो सकता है।
जन जागरूकता जरूरी: यदि जनमानस जागरूक हो गया तो असामाजिक तत्वों के खैर नहीं। यदि जनमानस आंख मूंद गया या डर के मारे मौन हो गया, तो यह एक बड़ी भी सद्गुण विकृति और त्रासदी होगी। इस विकृति से बचने के लिए समय-समय पर जन आंदोलन हुए हैं। जिनका की इतिहास साक्षी है। अति सर्वत्र वर्जयेत। प्रत्येक चीज का उत्थान के साथ पतन निश्चित है। इसलिए हम भूल कर के भी गलती ना करें और धरती को माता और अपने को उसका पुत्र माने। कहा गया है, यह धरती हमे विरासत में नहीं मिली बल्कि अपनी पीढ़ी के लिए उधार प्राप्त हुई है।
धरती को मां का दर्जा दें: हम अपने पर्यावरण को गंदगी मुक्त रखें। पृथ्वी को मां का दर्जा दें। अपने परिवेश की स्वच्छता, सौंदर्यकरण, हरियाली और खुशहाली के लिए जागरूक रहे। इन पहाड़ भक्षी बाघों का विरोध करें। तभी हमारा जीवन सुखमय हो सकता है। हमें अच्छी आवो - हवा मिल सकती है। अनेक बीमारियों से छुटकारा प्राप्त हो सकता है। जीवनशैली में सुधार हो सकता है और हमें मानव होने पर गर्व महसूस हो सकता है।
* लेखक: नगर पालिका परिषद चंबा, टिहरी गढ़वाल के “स्वच्छता ब्रांड एम्बेसडर” हैं।
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